वह खटिया पर पड़ी हुई वेदना पूर्ण नज़रों से अपने छोटे छोटे मासूम बच्चों
को देख रही थी , और जाने किया सोच रही थी ? उसे अल्सर के बाद कैंसर हो गया , दो आपरेशन हो गए
कीमोथेरेपी ने सर के बाल तक उड़ा दिए अब तो वो सिर्फ हड्डी के ढांचे के सामान रह गयी है
सामने तिन साल , पांच साल की दो बच्चियां खाने के लिए
टेबल पर उधम मचा रही हैं और माँ कुछ भी न कर पाने की लाचारी की हालत में मासूमों को निरीह प्राणी के समान देख रही है
खाने को बहुत है पर खा नहीं सकती और बच्चे खाते नहीं , कितने दुःख की बात है हाथ का निवाला हाथ में ही रह जाता है
कितनी बदनसीब माँ है जो अपने बच्चों को दो कौर भी खिलाने की हालत में नहीं है
जो भी रिश्ते दार आता है खुद खा - पी कर जाता है पर बच्चों और माँ देखते रह जाते हैं
दुनिया में गम हमेशा अपना ही होता है
एक दिन रात में वो चल बसी सुबह सब रिश्तेदार वहां थे मैं उन दो मासूमों के साथ खड़ा था
सब खा - पी कर ही आये होंगे , पर तीन साल और पांच साल के बच्चों की किसी को भी चिंता न थी
कहने को वो सब मामा , चाचा , ताऊ थे जब उठी तो मैं तीन साल की बच्ची को हाथ में उठाये देख रहा था
लाश की आखें अब भी खुली ही थीं शायद वो अपने बच्चों को ढूंढ रही थी , या फिर उनके बारे में कुछ सोच रही थी
मैं मौन सा सोच रहा था क्या यही है जिंदगी ? जिसके पीछे लोग भागते रहते हैं मैं सोच रहा था जैसे वाकर पर लोग दौड़ते हैं वैसे ही जिंदगी है
आखिर में हम वहीं है , जहां से शुरुआत करते हैं
हम सिर्फ दौड़ते हैं
------राज शेखर , रायपुर ----
आखिर में हम वहीं है , जहां से शुरुआत करते हैं
ReplyDeleteहम सिर्फ दौड़ते हैं
काश हम समझ पाते !!
thanx to read my blog n given comments..
ReplyDeleteऔर जो भरे पूरे परिवार के सामने होते बेते के हाथ में अन्तिम स्वांस लेती है उसका क्या?
ReplyDelete---जिन्दगी है खेल, कोई पास कोई फ़ेल. जिन्दगी की कोई परिभाषा नहीं होती.